Sunday, October 1, 2017

कर्बला

जब इमाम हुसैन हज करने के लिए मदीना से मक्का आए तो उन्हें मालूम हुआ कि यहां यज़ीद के लोग उनका कत्ल कर सकते हैं तो वो मक्का से बिना हज किए ही चले गए। क्योंकि वो अल्लाह के पाक घर में खून-खराबा नहीं चाहते थे।  वो मक्का से इराक के शहर कूफा पहुंचे।  उन्होंने कूफे के लोगों से मदद मांगी।  यज़ीद के सैनिक इमाम हुसैन की तलाश में कूफा भी पहुंच गए।  इमाम हुसैन ने अपने पैसों से कर्बला में कुछ जमीन खरीदी और वहां अपने तंबू गाड़ दिए और अपने परिवार के 72 सदस्यों के साथ इन तंबुओं में ठहर गए।  यज़ीद का हजारों का लश्कर भी कर्बला के मैदान में पहुंच गया। प्राचीन परंपराओं के अनुसार कर्बला का अर्थ है ईश्वर की पवित्र भूमि। कहते हैं ये बस्ती कई बार उजड़ी और कई बार आबाद हुई।  जब यज़ीद की सेना कर्बला पहुंची तो इमाम हुसैन को मालूम हुआ कि फौजी प्यासे हैं तो उन्होंने फौज को पानी पिलवाया।  इमाम हुसैन का कहना था कि हमारी लड़ाई खिलाफत के पद की नही बल्कि नाना (हज़रत मुहम्मद) के दीन को बचाने की है. कुछ इतिहासकारों का मत है यज़ीद ने अपने कमांडर उमरे साद को आदेश दिया था कि वो इमाम हुसैन और उनके परिवार को शाम (सीरिया) ले कर आए और वो यहां उनसे बैत करने को कहेगा।  लेकिन इसी दौरान शिम्र, इब्ने जियाद का खत लेकर पहुंचता है जिसमे लिखा था कि तुम इमाम हुसैन को कत्ल कर दो नहीं तो शिम्र को सेनापति बना दो। बहरहाल हुकूमत हो या खिलाफत हमेशा षडयंत्र करने वाले सक्रिय रहते हैं। इसी कर्बला के मैदान में जहां इमाम हुसैन ने अपने विरोधी की सेना को पानी पिलवाया।  वहीं उनके विरोधियों ने फुरात नदी से निकली नहर पर कब्जा कर लिया और इमाम हुसैन के परिवार का पानी बंद कर दिया।  इमाम हुसैन जानते थे कि हजारों फौजियों के मुकाबले में उनके 72 साथी शहीद हो जाएंगे।  वो चाहते तो खुद समेत सबको बचा सकते थे लेकिन उनकी नजर में दीनी उसूल ज्यादा अहम थे।इमाम हुसैन तीन दिन तक भूखे-प्यासे औरतों और बच्चों से सब्र करने को कहते रहे।  वो अपने छह महीने के बेटे को पानी पिलाने नहर पर ले गए।  उनको उम्मीद थी कि इस बच्चे को तो पानी मिल ही जाएगा। लेकिन जालिम फौजियों ने उस बच्चे को भी नही बख्शा और एक तीन कीलों वाला तीर उसके गले मे दे मारा जो आर-पार होकर इमाम हुसैन के बाजू में जा धंसा।  इमाम हुसैन के सामने उनके छह महीने के बेटे को कत्ल कर दिया गया लेकिन उन्होंने अपना इरादा न बदला। नौ मोहर्रम की रात को इमाम हुसैन अपने परिवार के लोगों के साथ रात भर दुआ करते रहे। वो अल्लाह से दुआ करते रहे कि अल्लाह उनकी कुर्बानी को कबूल कर ले और दीन व शरीयत को बचा ले। अगले दिन 10 मोहर्रम 61 हिजरी यानी 10 अक्टूबर, 680 ई. को कर्बला के मैदान में एक अजीब जंग हुई जिसमें हजारों प्रशिक्षित सैनिकों का मुकाबला छोटे-छोटे बच्चों और और औरतों समेत 72 भूखे-प्यासे लोगों से था।  नतीजा सबको मालूम था।  फिर भी लड़ना था। इंसानियत के लिए, सच्चाई के लिए, ईमान के लिए और शहादत के लिए। सभी मर्दों को कत्ल कर दिया गया।  बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया। औरतों को कैदी बना लिया गया।  इमाम हुसैन का कटा सिर नेजे (भाले) पर शहर की गलियों में घुमाया गया।  जालिमों ने अपने जुल्म की हर इंतेहा का प्रदर्शन किया लेकिन इमाम हुसैन से बैत न करा सके। इस तरह पैगंबर हज़रत मुहम्मद के नवासे और हज़रत अली के बेटे हज़रत इमाम हुसैन ने शहादत देकर अधर्मी और अत्याचारी के खिलाफ न सिर्फ अपनी बहादुरी का परिचय दिया बल्कि अपनी धर्मपरायणता का भी उदाहरण दिया।

(फर्स्टपोस्ट के लेख का महत्वपूर्ण अंश )

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